किसी की पहचान मिटाकर खुश है क्या बात, पति का सरनेम जोड़ना जरूरी...? क्या हैं इसके पिछे की टिप्पणी

किसी की पहचान मिटाकर खुश है क्या बात, पति का सरनेम जोड़ना जरूरी...? क्या हैं इसके पिछे की टिप्पणी
किसी की पहचान मिटाकर खुश है क्या बात, पति का सरनेम जोड़ना जरूरी...? क्या हैं इसके पिछे की टिप्पणी

कहानी सच्चाई की : मैं कई बार फेसबुक पर पुरानी सहेलियों को खोजने की कोशिश करती हूं, वो सहेलियां जिनके साथ हम स्‍कूल-कॉलेज में पढ़े। जिनके साथ एक्‍खट-दुक्‍खट खेलकर बड़े हुए। जिनके साथ क्‍लास में मुर्गा बने, शैतानी करने पर पिटे, कान पकड़कर क्‍लास के बाहर भरी धूप में बिठाए गए।

जिनका टिफिन चुराकर खाया, जिनके बॉयफ्रेंड का सीक्रेट सारी दुनिया से छिपाया। जिनके प्रेम पत्र उसके घरवालों और भाई की चौकीदारी से छिपाकर सुरक्षित उस तक पहुंचाए। रात में छत पर लेटकर सितारों को निहारते हुए बड़ी हसरत से जिसके पहले चुंबन की कहानी सुनी।

पहली बार ब्रा पहनने पर जिसे चुपके से कंधे से शर्ट खिसकाकर दिखाया कि देखो मैं भी। पहली बार पीरियड्स आने पर अपने दुख, जिज्ञासाएं, फिक्रें और सवाल साझा करने के लिए जिस सहेली को ढूंढा। जिसके साथ मिलकर शादियों में और घर की बालकनी में खड़े होकर नौजवान हसीन लड़कों को ताड़ा। लेकिन जिंदगी की तेज रफ्तार में जो एक दिन बिछड़ गईं।

वो सहेलियां। वो बचपन की दिलरुबा सहेलियां। 20 साल की उम्र में मेरे बचपन का शहर पीछे छूट गया और उसके साथ वो सारी सहेलियां भी, जिनके साथ लंबे समय तक सुख-दुख का साझा रहा था। मैं उन चंद खुशकिस्‍मत लड़कियों में से थी, जो उस छोटे कस्‍बाई शहर से दूर महानगर में पढ़ने और करियर बनाने के लिए जा पाई।

सालों बाद जब अचानक फेसबुक जैसी चीज पर बहुत सारे भूले-भटके, बिछड़े लोग अचानक मिल जाया करते थे, मैंने उस सहेलियों को ढूंढने की कोशिश की। लेकिन कुछ चंद नामों को छोड़कर बाकियों का फेसबुक पर नामोनिशान भी नहीं था।

यह थोड़ा अचंभा भी था कि सोशल मीडिया के इस दौर में जब सोसायटी के गार्ड से लेकर ऑटो वाले भइया तक सब फेसबुक पर फ्रेंड रिक्‍वेस्‍ट भेजते रहते थे, वो सहेलियां आखिर क्‍यों नहीं मिलती थीं।

लंबे समय की उधेड़बुन के बाद यह राज मुझ पर जाहिर हुआ। अंकिता बनर्जी लाख खोजने पर भी नहीं मिली क्‍योंकि वह अब अंकिता भट्टाचार्या हो चुकी थी। रु‍चि श्रीवास्‍तव रुचि सक्‍सेना बन गई थी। श्रुति खोसला श्रुति अरोड़ा हो गई थी।

10 में 9 सहेलियों के नाम ही अब वो नहीं थे, जिन नामों से मैं उन्‍हें जानती थी। जिन नामों से वो खुद को जानती थीं। वो सहेलियां फेसबुक पर कैसे मिलतीं क्‍योंकि वो वो रह ही नहीं गई थीं, जिन्‍हें मैं ढूंढ रही थी। वो तो कुछ और ही हो गई थीं।

एक इंसान के नाम के साथ-साथ उसकी पूरी पहचान और शख्सियत के बदल जाने की यह पहली और आखिरी मिसाल नहीं थी। जिंदगी ऐसे कुछ वाकयों से पहले भी दो-चार हो चुकी थी। उत्‍तर प्रदेश की तमाम मर्दवादी परंपराओं में से एक परंपरा ये भी है कि शादी के बाद ससुराल वाले लड़की का न सिर्फ सरनेम बल्कि पूरा का पूरा नाम ही बदल देते हैं।

10 की उम्र थी मेरी, जब पहली बार घर में किसी लड़की को ब्‍याहकर आए देखा। बड़ी मौसी के घर नई-नई बहू आई थी। उसके आने के दूसरे ही दिन घर में एक बैठक जमी, जिसमें घर की सारी उम्रदराज औरतें नई-नवेली बहू को घेरकर बैठी थीं।

हम बच्‍चे भी जिज्ञासावश उस घेरे में घुसे हुए थे। उनकी बातें सुनकर पता चला कि नई बहू का नामकरण हो रहा है। परिवार ने एकमत से नई बहू का नया नाम रखा- सुप्रिया। सास ने कहा, आज से तुम्‍हारा नाम सुप्रिया है। बहू ने घूंघट के नीचे से सिर झुकाकर हामी भर दी।

ये वो नाम नहीं था, जिसके साथ वो पैदा हुई थी। वो नाम भी नहीं, जो उसके और मेरे भाई की शादी के कार्ड पर छपा था। वो भी नहीं, जो उसके स्‍कूल की मार्कशीट पर था। वो भी नहीं, जिस नाम से उसकी मां उसे बुलाती थीं।

जिस नाम से सहेलियां उसे छेड़ा करती थीं। जिस नाम को भाई तोड़-मरोड़कर उसे चिढ़ाते। जो नाम उस इनाम के सर्टिफिकेट पर लिखा था, जो उसने इंटर स्‍कूल म्‍यूजिक कंपटीशन में जीता था। एक नाम, जिसे वो पैदा होने से लेकर अब तक जानती रही, अचानक एक दोपहर ससुराल वालों ने पूरे अधिकार और इनटाइटलमेंट के साथ उस नाम को बदल दिया।

उस दिन बहू नाम के उस जीव का सिर्फ नाम नहीं बदला था। नाम बदलने में ये निहित था कि इसके साथ तुम्‍हारा पूरी पिछली जिंदगी, तुम्‍हारी पहचान, तुम्‍हारा काम, तुम्‍हारे रिश्‍ते, सबकुछ बदल रहे हैं। पुराने सबकुछ से नाता टूट रहा है। अब इस नई जिंदगी का मालिक कोई और है। अब तुम्‍हारे नाम से लेकर तुम्‍हारी जिंदगी के हर छोटे-बड़े फैसले की लगाम किसी और के हाथों में होगी।

अगर आपका थोड़ा आधुनिक, थोड़ा फेमिनिस्‍ट, थोड़ा शहरी चेतना बोध वाला मन ये कह रहा है कि ये बातें किसी गुजरे जमाने की हैं, कि अब तो लड़कियों के नाम ब्‍याह के साथ नहीं बदले जाते तो आप एक बार फिर सुगंधित मुगालते में हैं।

प्‍यू रिसर्च सेंटर की ये एक हफ्ते पुरानी रिपोर्ट है, जिसके मुताबिक अमेरिका में 79 फीसदी औरतें आज भी शादी के बाद अपना सरनेम बदलकर अपने नाम के आगे पति का नाम लगाती हैं. 79 फीसदी यानी हर दस में से आठ औरत शादी के बाद अपना नाम बदल रही है।

अगर अमेरिका में ये हाल है तो अपने देश की तो आप बस कल्‍पना ही कर सकते हैं। न यकीन हो तो अपने आसपास, अपने ऑफिस में एक छोटा सा सर्वे करके देख लीजिए। हकीकत पता चल जाएगी।

ये आंकड़ा है साल 2023 का। आधुनिकता, फेमिनिज्‍म, जेंडर बराबरी के दौर का। जब शिक्षा, नौकरी और अर्थव्‍यवस्‍था में स्त्रियों की हिस्‍सेदारी बढ़ रही है। जब इस हिस्‍सेदारी को और मजबूत करने की मांग लगातार उठ रही है। जब हर क्षेत्र में जेंडर बराबरी की राह भले अभी मुश्किल और मंजिल दूर हो, लेकिन उस मंजिल तक पहुंचना सरकारी नीतियों और योजनाओं के लक्ष्‍यों में से एक जरूर है।

ऐसे में प्‍यू रिसर्च सेंटर की ये रिपोर्ट ऐसी है, मानो चांद की यात्रा में निकले यान में लटका नींबू-मिर्च। औरतों के चार कदम आगे और 40 कदम पीछे। सारी बराबरी एक तरफ और पति का सरनेम एक तरफ। सारी खुदाई एक तरफ और पति के नाम की वफाई एक तरफ।

हालांकि ये स्‍टडी पिछले 40 सालों का कोई ग्राफ नहीं देती, लेकिन सच तो ये है कि पिछले दो दशकों में स्त्रियों की बराबरी की यात्रा जितने कदम आगे बढ़ी, उससे कहीं ज्‍यादा कदम पीछे की ओर भी बढ़ी है। परंपराओं के पुनरुत्‍थान के नाम पर करवा चौथ और तमाम पारंपरिक व्रत-उपवास नए कलेवर में सामने आ रहे हैं।

मॉडर्निटी के साथ ट्रेडीशन का कॉम्बिनेशन देखना हो तो हनीमून पर गई लड़कियों की शॉर्ट्स और चूड़े में तस्‍वीरें देखिए। कपड़े मॉडर्न हैं, लेकिन हाथों में कोहनी तक चूडि़यां, माथे पर सिंदूर और मंगल सूत्र बिलकुल इंटैक्‍ट है। मॉडर्निटी सिर्फ मॉर्डन कपड़ों में है। दिमाग वैसे ही बंद हैं। नाम के आगे पति का सरनेम लगा हुआ है और इस तरह आधुनिकता और परंपरा के संगम में पूरा समाज डुबकी लगा रहा है।

किसी इंसान का नाम बदल देना उसकी आत्‍मा को बदलने की तरह है। नाम हमारी पहचान है। एक ऐसी पहचान, जो हमें जन्‍म से मिली। जिस नाम के साथ हम बड़े हुए। उस नाम को कोई कैसे बदल सकता है। मानो एक औरत का अपना नाम और पहचान काफी नहीं कि उसके साथ पति का नाम और पहचान भी जोड़ना जरूरी है।

दुनिया का कोई आदमी कभी ब्‍याह के नाम पर अपना घर-परिवार, अपने प्रिय लोगों को छोड़कर किसी दूसरे के घर रहने नहीं जाता। कभी अपना नाम नहीं बदलता। अपनी पहचान नहीं बदलता।

शादी नाम के रिश्‍ते से एक पुरुष की आइडेंटिटी नहीं बदलती। औरत की बदल जाती है। पति का नाम और पति की पत्‍नी होने की पहचान किसी स्‍त्री के अपने नाम और व्‍यक्तित्‍व की पहचान से बड़ी हो जाती है। फर्क नहीं पड़ता इस बात से कि औरत अपने आप में कौन है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि उसका पति कौन है। वो किसकी पत्‍नी है।

शादी के बाद औरतों का नाम और सरनेम बदलना एक मनुष्‍य की निजता और पहचान को पूरी तरह खत्‍म कर देने की साजिश है। एक औरत का पति चाहे कितना भी बड़ा तुर्रम खां क्‍यों न हो, असली बात ये है कि वो औरत का मालिक नहीं है। औरत का अपना एक नाम है, पहचान है, जो उसे जन्‍म से मिली है। वो पहचान बदलने का हक किसी को नहीं। और ऐसी परंपरा पर लानत है, जो औरत से उसका ये बुनियादी हक छीन ले।